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Wednesday 25 November 2015

'खाली घरौंदे': उपन्यास( अजय सिंह राणा 'असर')



*** रिश्तों के हनन और संघर्ष की खौलती कथा: 'खाली घरौंदे' ***
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मानवीय मूल्यों के दोमुँहेंपन, रिश्तों की बेसुध परिभाषा और चारित्रिक पतन को पाटने के संघर्ष से लेकर परिवार को स्थापित करने की अथक यात्रा से जिन जज़्बातों को लक्षित किया जाता है, वहीँ से अजय सिंह 'राणा'(असर) की किताब 'खाली घरौंदे' की नींव पड़ती है.

'असर' साहब के इस उपन्यास में कई चरित्र हैं, पर इसके स्त्री चरित्र बड़ी बारीकी से अपनी मौजूदगी हर सन्दर्भ में जड़ती चली जाती हैं. पुस्तक एक ओर पुरुषप्रधान समाज की संघर्ष- यात्रा को चिह्नित करती है, और उसके अंदर उपजे लम्बे और द्वेषपूर्ण रिश्तों की जहाँ आक्रामक तस्वीर प्रस्तुत करती है, वहीँ पारिवारिक रिश्तों में उपजी खाई को कभी न पाट सकने का ज़िंदा दर्द भी गोचर होता है. रिश्ते और उससे बनते- बिगड़ते सम्बन्ध को चिरकाल तक सही सन्दर्भों में सम्पोषित करने में काजल और आकाश को जिस उपेक्षा का सामना करना पड़ता है, वे अपने- आप में मानवीय मूल्यों को झकझोरने वाले कारक हैं, पर असर साहब ने जिस शिद्दत से अपनी किताब में चरित्रों को गढ़ा है, वे इंसानी भरोसे को तोड़ने वाले सन्दर्भ ही जान पड़ते हैं.

लेखक ने माँ को एक सशक्त शख्सियत के रूप में गढ़कर क़ुदरत से कोई बैर नहीं किया है, पर माँ जैसी पवित्र पात्र को जिन बेरुखियों और ज़िल्लतों का सामना अपनी संतानों को कुछ बना देने में करना पड़ता है, वहाँ भी यह चरित्र उत्तिष्ठ चिंघाड़ करती है, और बदलते रुख के साथ अपने बेटे आकाश और बहू काजल में उन्हीं पैमानों को संजोकर ढालती है, जिन्हें इन दो चरित्रों को ताउम्र अपने जज़्बातों को हनन करके पोषित करते रहना है, और वे इस बेरुखी से न सिर्फ अनजान दिखते हैं, बल्कि समय के थपेड़ों से ऐसी नाउम्मीदी को आत्मसात भी करते हैं.

'खाली घरौंदे' प्रेम, पारिवारिक- निष्ठां  और उसमेँ उपजे खालीपन की एक ऐसी व्यथा- कथा है, जिसमे कई चरित्र हैं, और जिसका फैलाव संबधों के पतन तक है, पतन की उस पराकाष्ठा तक जहाँ से रिश्ते अपेक्षा की सीढ़ियाँ लाँघ जाती हैं, और उपेक्षाओं को आत्मसात करने की ख़ुशी में ही अपने दायित्वों का संवहन करने को जज़्बाती होना मानती है. दरअसल, यही मानवीय मूल्यों के होने का सार होना भी है, जहाँ अपेक्षाओं की तिलांजलि बेशर्त सौंपी जा सके, और आकाश- काजल ने इस एहसास को बक़ायदे जिया है.

बीस सुन्दर- से शीर्षक में टुकड़े- टुकड़े बँटी ये कथा कहीं भी तारतम्य नहीं तोड़ती, और पाठक को बांधे रखने के हर सन्दर्भ को श्लाघनीय बनती है. लेखक ने अपने मूल चरित्र को कहीं भी उजागर नहीं किया किया है, एक ओर जहाँ आकाश अपनी पहचान बुलंद करने को दिखता है, तो दूसरी ओर माँ और काजल का त्याग भी अपनी सशक्त मौजूदगी तय करती है, और एक तय राय बनने की गुंजाइश गुमशुदा जान पड़ती है. एकाकार होने पर पुस्तक असर साहब के अंदर के घरौंदे में मची उथल- पुथल की जीती- जागती तस्वीर जान पड़ती है. एक कलमकार शब्द- कर्म कर सकता है, पर अपनी ख़ुद्दारी को जीकर उनमें शब्दों का जाल बुनना ज़्यादा दुष्कर होता और उस कथा को ज़्यादा ग्राह्य बनाता है, जहाँ असर साहब ने जी- तोड़ मेहनत की है.

पुस्तक एक लय में चलते हुए हर बेफ़िक्री को जीती है, पर जो तथ्य इस लय को भंग करते हैं, वो गंभीर वाक़यों में अतिशय चालू क़िस्म का काव्य/ छंद आ जाना है. यद्यपि अजय जी ने प्रसंगों को ज़्यादा संदर्भित करने के ख़याल से ऐसा किया है, पर पाठकवर्ग में यह बोझिल हो जाने के लिए अपने पाँव पसारता है, और गुस्ताखी माफ़ हो तो, कहीं न कहीं आपकी  छपास की बू को उजागर करता है.

इसी सन्दर्भ में, पुस्तक  के ज़्यादातर भाग डायरी के पन्नों से उद्धृत है, और तारीखवार उनका संकलन कथा को गाम्भीर्य न देकर नाटकीय रूप देने लगता है, जहाँ यह दीगर है कि आगे होनेवाली बातों में आकर्षण इस मुकाबले ज़्यादा होकर ये तथ्यों पर भारी पड़ जाते हैं, और यह असर जी की लेखनी की धार ही समझी जानी चाहिए, जो पाठक को न केवल उबाऊ होने से बाहर करती है, बल्कि नयी संभावनाओं की ओर धकेलती है.  

पुस्तक के कुछ सन्दर्भ बड़े ही मार्मिक और किसी भी तरह के व्यंग्य- प्रतिक्रियाओं से परे हैं: 

''जब आकाश माँ को हॉस्पिटल में छोड़कर आ रहा था तो माँ उसे बाहर तक छोड़ने आई. उनकी आंसुओं से भरी आँखें आकाश सारे रास्ते याद करता रहा. वह उस मंज़र को भूल नहीं पा रहा था. ऐसा लग रहा था कि जैसे माँ वहीँ खड़ी उसे मुड़- मुड़कर देख रही हो, और कह रही हो कि यहाँ मत आया कर, क्यूँकि माँ नहीं चाहती थी कि आकाश उसकी तक़लीफ़ को ज़्यादा जाने. वह अकेली ही मौत से लड़ रही थी...''

एक बहुत ही साधारण- सी कहानी, या घर- घर की कहानी  को जिस शिद्दत से असर साहब ने पठनीय बना दिया है, वो संभावनाओं से भरी इनकी लेखनी  की अगुवाई  करते हैं. 'साधारण - सी ' इसलिए भी, क्यूँकि जो व्यथा- कथा उन्होंने काजल- आकाश- माँ के आयामों से गढ़ा है, वो हर घर की एक चलायमान कहानी है, और हम सब जिसमे रचे, बसे, घुले कुछ इस क़दर जीते चले जाते हैं, जहाँ सिवाय अफ़सोस और वितृष्णा के कुछ होता नहीं हमारे  पास; पर ऐसे ही सीमान्त से कूदकर असर साहब ने इन वाकयों को लेखनी की चुनौती बनायी है, और यही उनके अंदर के सम्भाव्य को उजागर करती है.

कमोबेश यह किताब हर किसी को अपने घर की कहानी लग सकती है, और दुर्भाग्य से इसमें माँ का चरित्र ही हर जगह ज़्यादा चिंघाड़ करेगा, पर क्या इसे सिर्फ संयोग कहकर पल्ला झाड़ लेना सही है! अगर मुद्दों पर आएं तो पुस्तक सामयिक समस्याओं के लिए यक्ष प्रश्न भी तैयार करती है, कि माँ ही वो चरित्र अनंतकाल से क्यों  है, जो त्याग, घुटन, टुटन, प्रतिबद्धता की मूरत होती चली आयी है, और हम सब इस ज्वलंत प्रसंग पर बस बड़े- बड़े आख्यान और तथाकथित बुद्धिजीवियों से लैस विचारोत्तेजक सभाओं तक सिमटे हुए नयी ज़मीन तैयार करने के भरम में रहने लगे हैं. 'काजल' जैसी ज़िन्दा  पात्र  भी उसी माँ को उजागर करती है, जहाँ खीज होकर भी एक सांत्वना होने की उम्मीद को ही भरसक ज़िन्दगी का फलसफ़ा  समझा जाता  है.

अजय जी ने उपन्यास में पहली बार हाथ आज़माया है, पर उनकी लेखनी को कहीं से कमतर आंकना जल्दबाज़ी नहीं, भूल हो सकती है. यह उनकी सशक्त लेखनी का प्रमाण ही है कि चंडीगढ़ साहित्य अकादमी ने इस पाण्डुलिपि को कई मायनों में सराहा है. पुस्तक की छपाई- सफाई भी सुन्दर है, और वाज़िब मूल्य पर होने से इसकी खरीद साहित्यिक तृप्ति  करने  को अच्छा विकल्प है.

ग़ैर- इरादतन इस क़िताब की जो कमियाँ हैं, वे उनकी आने वाली कई किताबों में न दुहराने की उम्मीद तो की ही जा सकती है. पुस्तक से जुडी शख्सियत और समस्त उपक्रम  को मेरी अशेष शुभकामनाएँ! ***
                     --- अमिय प्रसून मल्लिक.
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पुस्तक- 'खाली घरौंदे'
प्रकाशन समूह- युनिस्टार बुक्स पी. लिमिटेड, चंडीगढ़
मूल्य- रु. 295/-

Sunday 12 July 2015

'सैलाब'- ग़ज़ल- संग्रह(डॉ. मोहसिन 'तनहा')




शिद्दत से उकेरे लफ्ज़ हमेशा सैकड़ों मायने देते हैं, और उनकी सार्थकता हर शय में प्रासंगिक होती है. ऐसे ही ख़यालात का खूबसूरत गुलदस्ता है डॉ. मोहसिन 'तनहा' का ग़ज़ल संग्रह 'सैलाब'. परिदृश्य प्रकाशन से निकली इस क़िताब में तकरीबन सौ बेहद सुन्दर ग़ज़ल हैं. सुन्दर और सकारात्मक एहसासों का पुलिंदा हैं उनकी ग़ज़लें, और उनको लिखने में जिस बारीक़ी और साफ़गोई को ख्यालों में पिरोया गया है, वो बात इस पुस्तक को औरों से अलग करती है.

ग़ज़ल लिखने में जिस क़ाफ़िया या रदीफ़ का ख़ास ख़याल रखना होता है, उस विधान को तोड़ते हुए अपनी बेबाक़ी से मोहसिन 'तनहा' जो इन ग़ज़लों में कह गए गए हैं, वो क़ाबिल-ए-तारीफ़ है. इस क़िताब की हर ग़ज़ल अपने आप में पूर्ण और सार्थक है, जिसका हमारी रोज़ की ज़िन्दगी से सीधा लेना- देना है. हम अक्सर ही जिन आरज़ुओं में जीते हैं और जिए जाने की आस बनाये रखते हैं, उसी घुटन, टूटन, स्वाँस, और लम्बी प्यास की जीती जागती तस्वीर 'तनहा' साहब की ग़ज़लों में क़रीने से महसूस जा सकता है. बहुत कम ऐसी किताबें (काव्य/ग़ज़ल- संग्रह) आती हैं, जिनकी प्रायः रचनाएँ आपको पसंद आ जाए, या आप उनमें रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की तस्वीरों को अपनी आँखों से देखें, पर मोहसिन 'तनहा' की यह क़िताब एक अपवाद- सा है, जिसकी हर रचना अपने-आप में कसी और सधी हुई है, और जिसका हर आमो-ख़ास आदमी से कहीं न कहीं जुड़ाव गोचर होता है, और मैं समझता हूँ, यह आपकी क़िताब का सबसे सुन्दरतम पहलू है जो इसे सफल बनाता है.

कुछ अश'आर इतने खूबसूरत हैं कि पढ़ते हुए आप इसलिए भी ठहर जाते हैं क्यूँकि अभी- अभी आपको अपनी आँखों के आगे अब तस्वीर गढ़नी है, ताकि आप आगे पढ़ने के क़ाबिल साबित हों. ज़रा ग़ौर करें;

''मुल्क़ को कभी हिन्दू, कभी मूसल मान बना रहे हैंI
ये सियासी  इसकी  कैसी  पहचान  बना  रहे  हैं II

तक़सीम हुआ है आदमी गुमराहियों के खंज़र से,
क्यों  यहाँ  लोग  चेहरे पे ऐसे  निशाँ  बना  रहे हैंI

...खाली हाथ किसी हथियार से काम नहीं होता,
थमाने को उसके हाथों में सामान बना रहे हैं...I''

ठीक उसी तरह, इन पंक्तियों में भी उनकी क़लम अतिशय ज़्यादा आघात करती है;

''तुम ही आँखें हमसे चुराते रहेI
हम फिर भी हाथ मिलाते रहेII

तोडना चाह था रिश्ता खून का,
जाने क्या सोचकर निभाते रहेI

तेरे गुनाहों में हम भी हैं शरीक,
ताले क्यूँ जुबां पे लगाते रहे...I''

'तनहा' साहब सिर्फ मौजूँ कवियों- सा काव्य रचने में ही अपनी मशगूलियत नहीं दर्ज़ करते, उन्हें आवाम की आबो- हवा की फ़िक्र भी सताती है, और उसे भी वो अपनी क़लम से उकेरना चाहते हैं. साथ ही, जिस सार्थकता से वो बड़ी से बड़ी बात दो छंदों में कह जाते हैं, वो क़ाबिल-ए-ग़ौर है;

''वो कमज़ोर करता है अपनी नज़र को I
देखना  ही  नहीं  चाहता  अपने घर को II

अदब का माहिर है, लिखता पढ़ता है,
उसकी काबिलियत नहीं पता नगर को...I''

घर- परिवार की घुटन, समाज की सिसकी, और अहम की झूठी तुष्टि के घालमेल से जो सार्वभौमिक समंदर उफ़नता है, 'तनहा' साहब ने उसे ही भरसक अपनी प्रायः ग़ज़लों का विषय बनाया है, और उनको कसने में जिन लफ़्ज़ों की कारीगरी दिखाई गयी है, वो उनके इस फन में तज़ुर्बा रखने की अगुवाई करती है.
कुछ अश'आर बड़े ही सलीके से आज के निकायों और उनमें उपजी रसूखों का नंगा चित्रण करते हैं, जिसे बहुधा आम लोगों ने रोज़मर्रे के दरम्यान झेला है, और जो इस कुंठित और लाचार 'सिस्टम' की बीमारी बन चुका है. एक बानगी देखिये;

''परवाज़ ही बस जिसका मक़सद हो,
सोचो वो किस तरह का परिंदा हैI

मैंने बचपन से जिसे जवाँ देखा था,
ये मेरे वतन का वो ही बाशिंदा हैI

यूं मुंह लगाने से सर पे और चढ़ेगा,
ये सरकारी दफ्तरों का क़ारिन्दा है...I''

अपनी सारी ग़ज़लों को लयबद्ध करने में जिस ख़ूबसूरती का मोहसिन 'तनहा' साहब ने इस्तेमाल किया है, उनमें सबसे ज़्यादा चर्चा की बात यह बनती है कि क़िताब की पूरी डिज़ाइनिंग और टाइपिंग आपने ख़ुद ही की है, जो आप और आपके किसी शाहकार के प्रति लगाव को दर्शाता है, और तिस पर अगर सार्थक कुछ निकले तो मिहनत यूँ ही सधी समझी जानी चाहिए.

बिना किसी लाग- लपेट के आपकी ग़ज़लें बोलती हैं, और उनके लफ्ज़ जिस तरीके से अपने मायनों के सन्दर्भ दिखाते हैं, वो गज़ब के सुन्दर ख़यालात जनते हैं, कि जिन बातों को हमने कभी सोचा, महसूसा, और जिनका प्रायः ही कई मौकों पर हवाला दिया, और जहाँ हर बार हमारे शब्द ही चूके, तो उसी की भरपाई इन ग़ज़लों ने बिना शर्त की. और यही इन ग़ज़लों का अपनापन है, जो संग- संग चलता रहता है.

ग़ज़लों के जिस चिरकालिक विधान का आपने अनुसरण नहीं किया, और जिस तथ्य को बड़े हौसले से आत्मसात भी किया, वही आपकी ग़ज़लों को और भी ख़ूबसूरती दे गया, और इरादतन ऐसा न करना आपकी रचनाओं को उतना ही ग्राह्य करता है, जिसे आम शब्दों में जन- संवाद कहा जाना चाहिए, और इसे ही मैं आपकी ग़ज़लों के सफल होने का बहुत बड़ा मंत्र समझता हूँ. हम सब रचनाएँ रचते हैं, पर अगर उसे पढ़के कोई समझे नहीं, तो उसकी सार्थकता संदेहास्पद बन जाती है, यह दीगर है कि रचनाकार की अपनी अलग सोच होती है, कोई जन- चेतना को लिखता है, कोई जन- संवाद करता है, और कोई आत्म-तुष्टि को अपना सुखन घोषित करता है.

मेरी समझ से, 'तनहा' साहब की यह किताब अन्य ग़ज़ल संग्रह या अन्य किताबों से कई मायनों में इसलिए भी अलग है, क्यूँकि अपनी व्यस्त दिनचर्या से उन्होंने इनकी ग़ज़लों को निचोड़ा है, और घूँट- घूँट कर इसमें अपनी ही प्यास को जीकर, इसमें उड़ेलते हुए लफ़्ज़ों को हरा किया है. आपने जो देखा और जिया है, उसी का बिलकुल सादा चित्रण है यह संग्रह.

दो मिशरे देखिये, किस दिलकश अंदाज़ में टीस ज़ाहिर होती है;

''जबसे जेब में सिक्कों की खनक हैI
तबसे उसके रवैये में कुछ फ़रक़ है II

चेहरा बदल रहा है लिबासों की तरह,
आँखों में न जाने कौन- सी चमक हैI

ये करवटें नहीं, तड़प है मेरे दर्द की,
अंदर ज़माने पहले की कसक है...I''

जिस अदा और और ठसक से आपके लफ्ज़ अपनी धमक पाठक पे दर्ज़ करते हैं, उसकी तारीफ़ तो बनती है. और फिर यहाँ हर ग़ज़ल की अपनी ख़ूबसूरती है, जिसे घोषित करना उसकी मिठास को आम करना है, क्यूँकि जो छुपा है, उसी में आकर्षण है, और उसी का आस्वादन सम्भाव्य हो, और जो नकारात्मक है, वो नगण्य है.पुस्तक की छपाई- सफाई लाजवाब है, और सिर्फ 150/- रु. में इसकी खरीद बहुत ही सुन्दर सौदों में से समझी जानी चाहिए, ख़ासकर उनके लिए जो पढ़ते हैं, और अच्छी किताबों के लिए प्रायः लालायित होते रहते हैं.

और चलते- चलते, जिसे हमारे चाहनेवालों ने समीक्षा की पंक्ति में डाल रखा है, वो दरअसल मेरी अपनी राय है, मतान्तर की संभावना होनी ही चाहिए तभी बातों में बात होती है.'तनहा' साहब की अगली किताब की आस में इसी किताब में उद्धृत एक शे'र अर्ज़ है,

''जब- जब अँधेरे घने काले हुए हैं,
यहाँ रोशनी फैलाने वाले हुए हैं I'' ***

                  --- अमिय प्रसून मल्लिक.


Tuesday 23 June 2015

'बुराँस की तरह'- काव्य- संग्रह(नवीन नौटियाल)





नवीन नौटियाल की 'बुराँस की तरह' आधुनिक काव्य- जगत में ज़ोरदार दस्तक है. नये कवियों के प्रतिस्पर्धी माहौल में शालीनता से अपनी मुक़म्मल जगह और पैठ बनाती उनकी यह किताब कई आशावादी पहलुओं की ओर ध्यान खींचती है. भरसक उधर भी, जिसे कई उदीयमान कवि काव्य का सामयिक विषय बनाने को हिचकते हैं.

पेशे से शिक्षक और ज़मीनी हकीकत से गहरे जुड़े नवीन जी प्रकृति और उससे जुड़ी असलियत से ही अपने काव्य के मायने रचते हैं, और कमोबेश उसी में अपने अस्तित्व को प्रक्षेपित हुआ देखते हैं. उनके काव्य का विषय भी मूलतः 'प्रकृति' या उसके आस पास का झकझोरने वाला पहलू ही है, जो शब्दों का अद्भुत और ज्वलंत तारतम्य बुनता है, और उनका अनोखा संग्रह कर पुस्तकाकार में अपनी उत्पत्ति दर्ज़ करता है.

तकरीबन 120 कविताओं से सजी यह छोटी- सी पुस्तक बड़ी आशा जगाती है. आशा और उम्मीद इस बात की कि आधुनिक साहित्य में भी सम्भाव्य है, और साथ ही इस तथ्य को लेके भी, कि कई रचनाएँ अगर पाण्डुलिपि तक ही सीमित हों तो भी उन्हें कमतर नहीं आँका जाए.

यों कि पिछले कई महीनों में सोशल मीडिया और ऐसे ही कई 'प्लेटफॉर्म्स' के सहयोग से कई काव्य- संग्रह( एकल व साझा) आये, पर ज़्यादातर में छपास की बू ही साहित्य का गला घोंटने का काम करते रहे. कुछ ने 'फेसबुक' पर जितनी तारीफ़ें बटोरीं और 'बेस्ट सेलर' की लिस्ट में शामिल होने को तड़पती रहीं, उनकी रचनाओं से ही उनके स्तर का पता लगाया जा सकता है. सौभाग्य से, ऐसे दौर में नवीन जी उम्मीद की इक तेज़ लौ लेकर आते हैं और अपनी छोटी और बिला- वजह की 'मार्केटिंग' से परे अपनी सटीक मौजूदगी तय करते हैं. आपकी कविताओं में प्रकृति का इतना सुन्दर और सरल चित्रण मिलता है कि पाठक न चाहते हुए भी अगली रचनाओं की ओर बढ़ता चला जाता है.

पुस्तक की शुरुआत ही शीर्षक कविता से होती है, जिसका उत्तरार्द्ध अतिशय कचोटने वाला है:

''सोचा तो था
की मेरे सपने भी खिलें
बुराँस की तरह
जो दिखाई दे सभी को दूर से
ठीक बुराँस के फूल की तरह
लेकिन/परिस्थितियां अड़ी थीं मेरे आगे
बाँज के जंगल की तरह...''

वैसे ही, 'कविता: एक अस्तित्व' में सच्चाई का बड़ा सालने वाला चित्रण मिलता है,

''जब कविता दिखाती है
खेतों- खलिहान के हालात को
गाँवों की असामान्य व्यवस्था को
कुपोषण को, भूख को
आत्महत्या करते किसानों को,
तब/ कविता पर ही तन जाती हैं लाठियाँ
निर्दोष कविता कुछ नहीं कहती है
बस चुप रहती है...''

पर इनका काव्य आगे भी चीत्कार करता रहता है, और अपनी आवाज़ बुलंद करने के हर मौके की तलाशी में मगन आज की पीढ़ियों की कमियों को भी सिसकता है, जो 'क्या हमारे बच्चे देख पाएँगे?' में बड़ी ख़ूबसूरती से उकेरा गया है;

''गेहूँ- जौ के खेतों में
फैली हरियाली को देखकर
मन करता है की कुछ देर रुक जाऊँ यहीं
जी भरकर देखूँ इसे या ले जा सकूँ
फेफड़ों में भरकर इस ताज़ा हवा को
या नथुनों में भरकर ही ले जाऊँ
सरसों के फूलों की तैलीय सुगंध को...''

प्राकृतिक पहलुओं से इतने सुन्दर छंद आज लिखने की हिम्मत कौन करता है! नवीन जी ने इसे ही अपना सबसे बड़ा विषय गैर- इरादतन घोषित किया हुआ है. वो पहाड़ी वादियों में विचरते हुए कुदरती उपमाओं और अलंकारों से अपनी कविताओं को सजाते हैं. शीर्षक कविता से प्रेरित एक छंद चौंकाने वाली परिस्थिति में आपको पहुंचाता है, और काव्य- सुखन के शौक़ीन को सोचने को एक ज्वलंत सवाल दे जाता है,

''जंगल में बुराँस है,
तो कुछ दिन और टिके
रहेंगे जंगल,
खुराफ़ाती सोचेंगे,
की इस जंगल में तो
लगी है आग पहले से ही
चलो, कहीं और चलते हैं.''

नवीन जी करुण रस में भी माहिर हस्ताक्षर हैं. उनकी एक कविता 'बहुत दिनों से' जो गीत रूप में सम्मिलित है, इसका सटीक समर्थन करती है,

''आँखों में ही अटके रहे आँसू
गिरे भी नहीं, सूखे भी नहीं
तेरे इंतज़ार में बैठे हैं अब तक
रूठे भी नहीं, टूटे भी नहीं...''

काव्य का इतना कलात्मक और 'रियलिस्टिक' चित्रण नैसर्गिक रूप से एक ज़िंदा शख्स ही कर सकता है. जो खुद जीता है, और खुद में हर परिस्थिति को जीता है, और सारे हालत को ज़िन्दा बनाये रखने की जुगत में सुखन को प्रेरित होता रहता है. सच तो यह है कि, काव्य- सुखन वालों के पास बस शब्द ही एकमात्र रास्ता होता है जिससे चलकर वो अपने एहसासों का अपने अंदर ख़ाका खींचता है, और नवीन जी ने इस तथ्य को बड़ी शालीनता से अपनी प्रायः रचनाओं में उकेरा है.

आपकी ज़्यादातर रचनाएं ज़िन्दगी और उनसे जुड़ी विसंगतियों का प्रकृति के परिप्रेक्ष्य में समर्पित चित्र हैं, जिनमें हम खुद को देखते और जीने लग जाते हैं. जैसे- जैसे काव्य पाठ का आरोहण होता हैं, हमारी अनुभ्होतियाँ उन कविता विशेष में ख़ुद को शब्दाकार होती ढूंढना शुरू करती हैं, और मेरी समझ में ही एक कवि और उसकी सर्जनात्मकता की सार्थकता है.

इन बातों के अलावा,नवीन जी की इस पुस्तक की ज़्यादातर रचनाएँ निर्विवाद रूप से पठनीय है तथापि कुछ रचनाओं के विषय श्लाघनीय होते हुए भी उनमें उत्तरोत्तर  कसाव की कमी खटकती है. यहां नवीन जी को रचनाओं के चयन में जल्दबाज़ी से बचना चाहिए; पर फिर भी, हो सकता है, अन्य रचनाकारों की किसी बहुप्रतीक्षित किताब की तरह आपकी किताब लोकप्रिय न हो, या तथाकथित 'बेस्ट-सेलर' की सूची में शामिल न भी हो, पर यह संग्रह अपने- आप में समृद्ध रचनाओं का पूरा संसार है, और इतने होनहार संकलन को भौतिक आकांक्षाओं की ज़रुरत बहुधा न ही कभी पड़ती है, न वो ऐसी बातों में अपने सुखन को प्रभावित होने ही देता है. सो, जो पढ़ने को तज़ुर्बाई तवज़्ज़ो देते हैं, उनकी सूची में आपकी किताब एक अप्रतिम अंक जोड़ेगी.

और चलते- चलते, कोलाहल से भरे माहौल में सादगी से लिपटी आपकी ज़िन्दगी आपको ज़मीन और उससे जुडी उम्मीदों से जोड़े रखती है. आप और आपकी शख्सियत का सबसे ज़बरदस्त सशक्त उदाहरण आपकी इस किताब में बड़े क़रीने से आपकी रचनाओं ने ख़ुद ही बताया है. आपकी क़लम और धारदार होते हुए साहित्य को ज्वलत्ता सम्पोषित करे, ऐसी उम्मीद के साथ इसके बाद वाली किताब की चाह बनती है. अग्रिम शुभकामनाएँ!

             --- अमिय प्रसून मल्लिक