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Sunday 16 November 2014
'मीठी- सी तल्खियाँ'---काव्य- संग्रह(धीरज श्रीवास्तव, रजनीश 'तपन' और पंकज 'सिद्धार्थ')
सुभांजलि प्रकाशन, कानपुर से छपी, तक़रीबन एक साल पहले मिली 'मीठी- सी तल्खियाँ' हिंदी की एक बहुत सधी हुई पुस्तकों की श्रेणी में अपनी मौजूदगी दर्ज़ करती है.
धीरज श्रीवास्तव, रजनीश 'तपन' और पंकज 'सिद्धार्थ' की यह साझा पुस्तक(काव्य- संग्रह) इसलिए भी अनुपम है, क्यूँकि ज़िन्दगी को बहुत क़रीब से जीकर उसमें से जो निचोड़ा गया है, वही इनके काव्यों की अगुआई करते भाव जनते हैं.
इरादतन तीस- तीस भावोत्तेजक कविताओं/ गीतों का यह अद्भुत संकलन आपको जीवन और उससे जुड़े ज़िन्दा प्रसंगों के बहुत क़रीब ला खड़ा करता है. धीरज जी के गीतों की जीवंतता सोशल साइट्स पर बहुतों ने महसूस की होगी, पर यहाँ जिन गीतों का संग्रह किया गया है, वे अनुपम हैं, और उनमें छुपे भाव बहुत ही प्रासंगिक. एक नमूना 'अक्सर मुझको छलते हो में' दिखता है,जहाँ असम्भाव्य को बड़े ही करीने से शब्दों में पिरोया गया है--
''कोई नज़र जो मेरी नज़र से, अनजाने में अगर मिली,
सुलग- सुलगकर धीरे- धीरे शाम- सवेरे जलते हो.
पानी आया आँखोँ में, तब मुझको टोह मिली तेरी
अब जाना बड़े सयाने हो, पानी पर भी चलते हो...''
वहीँ उन्हीं की 'इक गांव में' आज के तथाकथित अनचाहे दौर का सटीक खाका है, जिसे हम अनजाने ही रोज़ जीते हैं...
''जागीरें लम्बी- चौड़ी हैं, बहुत बड़ी औक़ात है
कहते हैं की रुपया जलता, उसके घर अलाव में...''
धीरज जी के गीतों में ग़ज़ल की तहज़ीब लिए एहसासों की ज्वलंत झलक मिलती है. शीर्षक गीत 'मीठी- सी तल्ख़ियाँ' इसका सबसे सशक्त प्रमाण है, वहीँ 'इन्तजाम हो गया' को इस संग्रह का अगर सबसे ख़ूबसूरत और सार्थक गीत कहा जाय तो, भरसक अत्युक्ति नहीं. चार पंक्तियाँ देखिए...
''मुश्क़िल से शाम का इन्तजाम हो गया
थोड़ी- सी मिल गयी, और काम हो गया...
कुछ भी नहीं मिला तो ये भी कम नहीं
रिन्दों की फ़ेहरिश्त में बड़ा नाम हो गया.''
पुस्तक की साज- सज्जा इतनी मनमोहक है कि आप काव्य- पाठ में यकायक खो- से जाते हैं. शब्दों के इन तीन जादूगरों में आपको रजनीश 'तपन' जी जीवन के तपते अनुभव से रू-ब-रू कराते हैं, जब वो 'इतिहास गवाही देता है' का उदगार करते हैं,
''भूगोल बदलते रहते हैं, इतिहास गवाही देता है,
सब मोल बदलते रहते हैं, एहसास गवाही देता है...
फागुन में रंग पुते, चैत्र में आकर घुलते हैं
मुस्काते इन चेहरों का परिहास गवाही देता है.''
दूसरी ओर, 'क़फ़स बंद है', रजनीश जी की बहुत ही सुन्दर कविताओं में एक है, जिसमें ज़िन्दगी और रिश्तों के दरम्याँ उपजी खायी को कभी न पाट सकने वाला दर्द स्वतः झलकता है, और इस दर्द को जीते हुए स्वयं में आत्मसात करने की क़बूलियत भी बड़ी बेबाकी से गोचर होती है. दर्द को जीकर शब्दों में पिरोना, और उसे फिर से ज़िन्दा करना मेरी समझ में एक शब्द- शिल्पी की सार्थकता है, और 'तपन' जी ने इसको अपने कई गीतों में बड़ी शिद्दत से साझा किया है.
यूँ तो यह पुस्तक नब्बे काव्यों का संग्रह है, पर जब आप शनैः- शनैः इनका आस्वादन करते जाते हैं तो और भी बेहतरी आपको विचारों से घेरती जाती हैं, और ऐसे ही परिवेश में आप पंकज 'सिद्धार्थ' के गीतों की और रुख करते हैं. यूँ पंकज जी का नाम मेरे लिए नया- सा रहा था, पर उनके काव्य में आम ज़िन्दगी की ज़रूरत और जद्दोज़हद को बड़े सलीके से जोड़ा गया है. 'ज़रूरत' इसलिए भी क्यूँकि मुफ़लिसी में भी किस क़दर शख़्स अपने ज़मीर के आगे ज़िंदा होता है, वो 'मिसाल रखेंगे' ने दिखाया है---
''कब होगा? लोग ख़ून में उबाल रखेंगे,
इस बार सभी से हम ये सवाल रखेंगे.
इस बार सर्दियों से हम नहीं ठिठुरने वाले,
एक कम्बल और थोड़ी- सी पुआल रखेंगे.
...मुफ़लिसी में भी कोई कितना अमीर होता है,
ज़माने के आगे हम अपनी मिसाल रखेंगे.''
तकनीकी सेवा से जुड़े होकर भी पंकज जी ने जो अपना कवित्व ज़िन्दा रखा है, यही उनके शब्दों का मोल बढ़ाता है. बचा- खुचा काम उनके रोज़मर्रे के अनुभव से जुड़े उनके गीत स्वयं करते दिखते हैं, और काव्य- कर्म में उनकी मौजूदगी इसी से और भी दृढ़ होती है.
इन सबसे इतर, पुस्तक में विराम- चिह्नों की अतिशय त्रुटियाँ हैं, जो जानकारी होने पर आपके तारतम्य को भंग करती हैं. साथ ही, कुछ रचनाएँ बहुत ही हल्की हैं, या यों कहें उनका भाव शुरू होते ही दम तोड़ देता है. यह एक ऐसी जगह है जहाँ रचनाकारों को अपने कर्म पर गहराई देनी थी, पर ग़ैर- इरादतन सभी इस मुद्दे पर चूक गए हैं.
फिर भी, पुस्तक का आवरण पृष्ठ बड़ा ही मोहक और सटीक है, और मूल्य(रु.-180/-) थोड़ा- सा ज़्यादा(या फिर प्रतिकूल).
यूँ, इन दिनों जो पुस्तक बाज़ार में आ रही है, वो पॉकेट ढीली करने के अनुकूल(यथा- रु. 100/- 150/- या फिर 200/-) ताकि खरीदने वालों को ज़्यादा तिकड़म न झेलना पड़े, पर यह उनके लिए जो शब्दों से ज़्यादा उनकी क़ीमत को तवज़्ज़ो देते हैं.
बावजूद इन सबके, इस पुस्तक की ख़रीद काव्य- सुखन और आस्वादन को तृप्त करने के लिए बिना हिचक के की जा सकती है.
पुस्तक और उनसे जुड़े सभी उपक्रम को मेरी अनंत शुभकामनाएँ!***
--- अमिय प्रसून मल्लिक.
Refer:-- ( https://www.facebook.com/photo.php?fbid=609925409111362&set=a.251477368289503.46694.100002817262196&type=1&theater¬if_t=like )
'हम्मिंग बर्ड'--- काव्य- संग्रह(मुकेश कुमार सिन्हा)
आज ही, 'फेसबुक' पर बहुतेरों के चहेते मुकेश कुमार सिन्हा जी की 'हम्मिंग बर्ड' मिली. पुस्तक का कलेवर ही मुग्ध करनेवाला है; और 'हिन्द-युग्म' ने यहाँ भी अपनी साफ़गोई दर्ज़ की है. अभी फिर हम किताब के भीतर भी चले चलेंगे.
मनोजगत को सूक्ष्मता से विश्लेषित करती कई पूर्ण रचनाओं का समृद्ध और सशक्त संसार है यह पुस्तक.
एक आम आदमी शब्दों को निचोड़कर जब मानवीय मूल्यों का चित्रण शब्दों से ही करना चाहता है, मेरी समझ में तभी 'हमिंग बर्ड' जैसी क़िताब का आगमन तय होता है. मुकेश जी ने प्रायः रचनाओं के साथ न्याय करना चाहा है, जिससे यह एक पठनीय सामग्री बन गयी है.
सच तो यह है कि कुछ कविताओं का आस्वादन करते- करते ऐसा जान पड़ता है कि हम उस परिदृश्य का हिस्सा बन गए हैं जहाँ यह शब्द- चित्रण चल रहा है, और यही इन कविताओं की निर्विवाद सार्थकता है.
एक बानगी 'महीने की पहली तारीख़' में है, जिससे शायद ही कोई मध्यवर्ग अछूता हो...
''हर महीने
का हर पहला दिन
दिखता है एक साथ
रहती है उम्मीद
बदलेगा दिन
बदलेगा समय
दोपहर की धूप हो जाएगी नरम
ठंडी गुनगुनाती हो पाएगी शाम...''
ठीक ऐसे ही, जब आगे 'उदगार' का पाठ होता है, रिश्तों में अपनी धाक जमाने वाले एहसासों का ताना- बाना दिखता है कि जो सात फेरों में जज़्ब वायदे हैं, कहाँ उनके आगे कोई उछृंखल भाव अपनी पैठ कभी स्थायित्व के साथ कर पाता है...
''याद नहीं फेरों के समय लिए गए वायदे
पर फिर भी हूँ मैं उसका...''
मुकेश जी की कविताएँ आम आदमी की ज़िन्दगी से ज़्यादा बातें करती हैं, और उन्हीं वार्तालापों में अपनी सटीक और सार्थक उपस्थिति बिना किसी अवरोध के जड़ती चलती है. आपकी कविताओं का जो सबसे सफल पहलू मैं समझता हूँ, वो एक मध्यम- वर्ग का शोषित और स्वयं से भरसक ज़्यादा दोहन किए हुए एहसासों का खाका है, जो बड़े ही चालू शब्दों से सजाया गया है.
इसी कड़ी में एक कविता आती है, ''पगडण्डी'' जो गोया सच से स्वयं का साक्षात्कार- सा है, जिससे शायद ही कोई मनुज अपने जीवनकाल में कभी बचा हो. बानगी तो देखिए---
''कोई नहीं
नहीं हो तुम मेरे साथ
फिर भी
चलता जा रहा हूँ
पगडंडियों पर
अंतहीन यात्रा पर
कभी तुम्हारा मौन
तो, तुम्हारे साथ का कोलाहल
जिसमें होता था
सुर व संगीत
कर पाता हूँ, अभी भी अनुभव
चलते हुए, बढ़ते हुए
तभी तो बढ़ना ही पड़ेगा...''
इन सबके अलावा, कुछ कविताओं के अंत और वो काव्य स्वयं बहुत ही निराश भी करते हैं. अगर आप संवेदना को दिनचर्या में घोलकर जियें तो यह एक अच्छी कोशिश है, मगर एहसासों के पतवार में रबड़ के टायर की मौजूदगी सालती है. मुकेश जी को कुछ कविताओं का अंत प्रभावशाली बनाना चाहिए, जहाँ वो चूक गए हैं. साथ ही, कुछ को किसी और संग्रह में तरजीह दी जानी चाहिए, ताकि आपकी बातों की गहराई चलायमान रहे; और यहाँ फिसल जाने से वो तारतम्य भी टूटा ही है. उम्मीद है, इस पर वे आगे ज़रूर ध्यान रखेंगे, और संख्या से ज़्यादा गुणवत्ता को तवज़्ज़ो देंगे...पर तब तक के लिए इस क़िताब की ख़रीद अच्छे खयालातों को बढ़ावा देना है.
प्रसंगवश:- मार्केटिंग के ज़माने में मुकेश जी ने अपनी इस पुस्तक में इस बाज़ारू रवैय्ये को सफलतम रूप से भुनाया है, और जब पुस्तक की कीमत पर ही उसके रचनाकार की सुन्दर हस्तलिपि में 'हस्ताक्षर' जिसे दुनिया 'ऑटोग्राफ' कहती है, मिल जाए तो सुन्दर पृष्ठ सज्जा वाली इस किताब को लेने का सौदा बुरा नहीं है.
क़िताब से जुडी सभी शख़्सियत को शुभकामनाएँ!***
--- अमिय प्रसून मल्लिक
Refer: ( https://www.facebook.com/photo.php?fbid=595641793873057&set=a.251477368289503.46694.100002817262196&type=1&theater )
'इश्क़ तुम्हें हो जाएगा'--काव्य- संग्रह(अनुलता राज नायर)
आज ही Anulata Raj Nair जी की किताब 'इश्क़ तुम्हें हो जाएगा' कूरियर से मिली और उसे पूरा खंगालने के आनन- फानन में कुछ विचारों को मेरे अंदर के उत्साहित कवित्व ने जना.
इसे ‘हिन्द युग्म' की सफलता ही कहें कि पुस्तक छोटी हो या बड़ी, छपाई- सफाई का हमेशा ख़याल रखा जाता है.
प्रेम- सन्दर्भों से लबरेज यह पुस्तक कई छोटी, मगर अपने- आप में कसी हुई रचनाओं का समृद्ध संसार है.
पुस्तक की शुरुआत ही बहुत ही सधी हुई रचना 'रूह' से होती है कि,
''कभी ख़ाली न हुई
वो क़ब्र
कि रूह आज़ाद नहीं होती
'गर रक्खा हो कोई बोझ
उसके सीने पर...''
वहीँ कुछ कविताएँ आज की स्त्री दशा को फिर से सोचने को बाध्य भी करती है. एक बानगी 'पनीली आँखें; में है-
''...अपने हर स्वप्न को,
मरते देखतीं
अपनी ही आँखों से
उस मासूम- सी
लड़की की
वो सीली आँखें.''
काव्य एक लय में चलता हुआ 'राग- विराग' के अनछुए पहलुओं पर भी अपनी धमक जड़ता है, और अतिशय समर्थ शब्द- सामंजस्य से आँगन में खड़े वृक्ष को 'रूपक' के रूप में लाता है. यहाँ प्रेम के परिप्रेक्ष्य में ही इसका होकर फिर न होना बड़ी परिपक्वता से दर्शाया गया है, और वो भी, केंद्र में जीवंत होकर भी किंकर्तव्यविमूढ़ पेड़ को लेकर. यह कविता अतीव सार्थक इसलिए भी जान पड़ती है कि रिश्तों और उनमें चस्प एहसासों को इसके पाताल तक पहुँचने वाली जड़ों से जोड़कर रखा गया है.
इसी सन्दर्भ में, जब और भी कविताओं का आस्वादन होता है तो 'प्रेम का रसायन' अपनी बड़ी सटीक उपस्थिति दर्ज़ करती है. शायद इसलिए भी, क्यूँकि यह उनका विषय रहा हो :p जहाँ उन्होंने इश्क़ के नाकाम होने की वजह का बड़ी सुंदरता से शब्दांकन किया, और स्त्री लज्जा को जिस चम्पई रंग में उन्होंने लपेटा है, वहीँ मनुजों के उच्छृंखल भाव की नंगी तस्वीर को भी सहजता से दिखाती हैं.
यद्यपि अग्रेज़ी के बोल लिए कुछ रचनाएं हिंदी में बहुत सार्थक बातें करती हैं, और अपने सीमित शब्दों से भाव जगाती भी हैं, तथापि शुरुआत से ही प्रेम की नय्या में सवारकर यकायक तारतम्य तोड़ देती हैं; ऐसा भरसक इसलिए भी क्यूंकि इनमें एहसासों से ज़्यादा बौद्धिक पहलुओं को तरजीह दी गयी है. यह पुस्तक की निराशाजनक चौहद्दी है, जहाँ आप और भी बेहतरी की उम्मीद में अब तक के सहेजे लय को खोने लगते हैं.
यहाँ अनुलता जी को ज़्यादा काम करना था. साथ ही, सम्पादकीय ताल-मेल भी रचनाओं के चयन में सूझ- बूझ का हिस्सा बनता.
पुस्तक की जो सबसे बड़ी और सकारात्मक बात है, वो ये कि पुस्तक छोटी और काफ़ी सधी हुई श्रेणी की है, और यही इसकी सफलता है. आज न तो किसी के पास इतना वक़्त है, और न कोई इतना समय मोटी किताबों को देना ही चाहता है. कम शब्दों में ज़्यादा सार्थक बातें, यही इसकी चुनौती ख़त्म करती है. पुस्तक का मूल्य भी उचित है, और ऑनलाइन शॉप से मंगाने पर भी कोई टेंशन नहीं, क्यूंकि किताब ही इतनी सुन्दर चीज़ है जहाँ आपको गारंटी या वारंटी की चिंता नहीं सताती.
अनुलता जी ने इस मर्म को समझकर ही भरसक रचनाओं के साथ ज़्यादातर न्याय किया है.
अंग्रेजी में एक कहन चलती है, last but not the least, उसी के तहत, उनकी सीख से मैं भी संक्षेप में अपनी राय ख़त्म करता हूँ. पुस्तक और उनसे जुडी शख्सियत को मेरी शुभकामनाएँ!
--- अमिय प्रसून मल्लिक.
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