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Sunday 15 October 2017

'रेंगती परछाइयाँ'- नाटक (उमा झुनझुनवाला)


*** मानवीय मूल्यों के हनन पर चीखता सवाल ***


उमा झुनझुनवाला का नाटक 'रेंगती परछाइयाँ' संवादों के सम्प्रेषण में जितना अप्रतिम है, उसके हर अंश की प्रासंगिकता उतनी ही ज़्यादा आज के समाज में दिखती है. इस छोटी सी किताब की नैसर्गिक खूबसूरती इस बात में और ज़्यादा गोचर होती है कि इतने कम पृष्ठों में संवादों ने इतना ज़्यादा बौद्धिक आघात किया है कि एक पल को आप हैरान हो जाएंगे; क्या सचमुच उमा जी ने सिर्फ एक नाटक लिख भर दिया है, या फिर समाज के कई नंगे सच से हमारा यकायक ही साक्षात्कार कराया है!
मानव जीवन की मूलभूत समस्या या ज़रूरतें, भूख- जठराग्नि या कि कामाग्नि जब अपनी जड़ों से दूर जाकर हुंकार करती है, और स्थापित मूल्यों के दर--दीवार को लांघने में हर बंधेज को दरकिनार करती है, वहीं से उमा जी का नाटक 'रेंगती परछाइयाँ' का भूमि पूजन तय होता है.
दुरूह वक़्त के स्याह साये में रिश्तों का हनन करके मिलनेवाले मलीन गाड़े को मिलाकर फिर दरख़्त और उस छत का निर्माण होता है, जिसमें नादिरा अपनी तीन जवान बेटियों संग अकेली और अभिशप्त- सी ज़िन्दगी का रोना चाहकर भी रो नहीं पाती. युवावस्था में कुलाँचे मारती यौवनावृति का इतना सटीक विश्लेषण बहुत कम नाटक में देखने को मिलेगा. जिन ज्वलंत प्रसंगों से लफ़्ज़ों के दूरगामी मायनों की कारीगरी दिखाई गयी है, वो उमा जी के इस फन में माहिर होने की खुली गवाही देती है. श्वेत- श्याम चित्रों से पटे इस नाटक में 'नादिरा' के चरित्र की भाव- भंगिमाएं उमा जी के चेहरे से और भी साकार और ज़िंदा हो उठती हैं.
मैं 'नादिरा' को ही इस नाटक काप्रोटगनिस्टसमझता हूँ. पूरा नाटक नादिरा और उसकी आबो- हवा में उठनेवाले संघर्ष, शोक, मुफ़लिसी, अफ़सोस, चिंता और कितनी ही बेचैन आशंकाओं के घने बादल के नीचे भागता- फिरता है. तीन जवान बेटियों की अधेड़ माँ जिसका पूरा जीवन ही दर्दनाक गाथा में सिमट जाता है. संघर्ष और उसके मायनों की खोज में उस माँ को किन अनैच्छिक परिस्थितियों से गुज़रना पड़ता है, नादिरा उसी शख्स की इकलौती गवाह बनती है. और, एक विधवा की ज़िन्दगी में किसी स्याह और कभी मिटनेवाली यादों की ऐसी पृष्ठभूमि जन्म लेती है, जिसका मंचन वो अपनी क्या, किसी की ज़िन्दगी में नहीं होने देना चाहेगी.
कुछ संवाद बड़े ही जीवंत और प्रासंगिक हैं जब 'मझली' और 'नादिरा' औरत के वजूद पर चर्चा करती हैं. सच तो यह है कि मझली का यह संवाद भावी आशंकाओं की एक कड़ी है जिसे नादिरा को अपने बुरे दिनों में याद आना है. जब मझली बड़ी शिद्दत से अपनी माँ नादिरा से सवाल करती है कि क्या हम औरतें सिर्फ एक जिस्म भर हैं!
नादिरा का जवाब अपनी युवा बेटी के लिए बड़ा सालनेवाला है,
''औरत चाहे गांव की हो या कसबे की या शहर की हो- एक जगह आकर सबका हाल एक जैसा ही होता है- वो सिर्फ एक जिस्म रह जाती है. इसलिए औरत को अपनी हिफ़ाज़त ख़ुद ही करनी पड़ती है. औरत जितनी आज़ादी से रहना चाहती है, उसे उतनी ही दुश्वारियों का सामना करना पड़ता है.''
औरत होकर औरत को पूरी उम्र मिलनेवाले तिरस्कार और जीवनपर्यंत अपनी सजीली ज़िन्दगी की अतृप्त चाह से जो दर्द पैदा होता है, नादिरा के शब्दों में ऐसे ही कई आघात नंगे सच के रूप में सामने आते हैं.
नादिरा की तीन बेटियों बड़की, मझली और छोटकी में सबसे ज़्यादा संवेदनशील मुद्दे मझली जनती है, और उसके जने ये मुद्दे बड़े ही कठोर सवाल खड़े करते हैं. मझली का अपनी माँ से यकायक ही यह कह जाना कि घर में किसी मर्द का होना उस घर के लिए कितनी बड़ी बद्दुआ है, बड़ा ही अटपटा पर तोड़ देनेवाला सच है.
पूरे नाटक का मंचन इसी सच का उजागर होना है कि तीन- तीन जवान बेटियों कि विधवा माँ सिर्फ अपने परिवार के लिए सिर्फ जागृत रहना चाहती है, बल्कि वो जग कर जीने की चाह में रोज़ ही मरती है, और आशंकाओं से घिरे होना उसकी नियति है जिसे उसने अपनी बेटियों की हौसला- आफज़ाई से ही जना है.
उम्र की जिस ढलती पड़ाव में जब उसने अपनी बेटियों की बात रखकर बशीर मियाँ पर भरोसा जताया, और घर के सूनेपन को उखाड़ फेंकने की ललक में जिस्मानी तौर पर एक अंधे संग जीवन का नया कबूलनामा गढ़ा; नादिरा के जीवन की यही सबसे बड़ी भूल साबित हुई कि वो कोई भूल होने नहीं देना चाहती थी. और उसके अपने खून ने अपनी कामाग्नि में जिस तरह रिश्तों की फ़ज़ीहत कर डाली, वो यदा कदा हमारे समाज का चुभनेवाला सच बन ही चुका है.
पूरे नाटक में दृश्यों का इतना जीवंत तारतम्य होता है कि आप किताब को बीच में छोड़ सकने में खुद को असमर्थ पाते हैं. यह बात इस किताब की सफलता गढ़ती है. कुछ संवाद जो बड़की और मझली के मध्य चलते हैं, इतने बौद्धिक जान पड़ते हैं कि उनकी गिरफ्त में वक़्त जाया करना ही कुछ पा लेने के बराबर है.
एक बानगी देखिये, जब मझली ने अपनी माँ से हरामकारी करके अपनी यौनेच्छा की तृप्ति करना जायज़ मानते हुए भी जायज़ करार दिया,
''बज्जो, मैं जानती हूँ हरामकारी गुनाह है...मगर भूख की शिद्दत में जब जान पर बन आये तो हर चीज़ हलाल हो जाती है.''
मानवीय मूल्यों के ह्रास का इतना बेबाक और सटीक चित्रण कम प्रसंगों में देखने को मिलता है. वहीँ नादिरा अपनी सखी शम्मो से मुखातिब होती है,
''...औरत हूँ ...चमड़ी के अंदर रगों में दौड़ते खून की चाल को भी भांप लेती हूँ...''
यह नादिरा का दुर्भाग्य ही है कि जिन रिश्तों को बचाने की आड़ में उसने अपनी उम्र की ज़रूरतों से भी समझौता करवाया, वही रिश्ते उनको हरामकारी की बदतरीन मिसाल दे गया.
दृश्य 2 में, शिकारी- जादूगर- अपहर्ता- भ्रमर, जो कह लें, - के जाल में फंसने के लिए बड़की का मानवीय आकलन किसी अनुभवी से काम नहीं जान पड़ता, जब वो बड़ी बेबाकी से दुनिया में दो चीज़ों की माजूदगी बताती है-
''सच- झूठ, ज़रूरी- गैर ज़रूरी, अँधेरा- उजाला, नर मादा..., मादा- नर, नर- मादा, मादा- नर, नर- मादा, मादा- नर...''
और यहीं से उस नापाक 'अंगूठी' के बदलाव की नयी कहानी नादिरा समझ पाती है. जीवन के इस दौर में पहुँचकर वो जान पाती है कि बशीर मियाँ ने जिस अंगूठी में उसके भरोसे को क़ैद करने की वक़ालत की थी, वो दरअसल नादिरा को क़ैद करने की अनसोची जुगत थी, जिसे वक़्त ने बड़े ही बेवक़्त इस औरत को दिखाया और बताया.
और यहीं आकर, सारे पसोपेश का खात्मा हो जाता है, यों कि यकीन के उस लोथड़े को जिस आख़िरी स्पर्श का इंतज़ार था, वो नादिरा के हाथों ही एकदम शांत पड़ा हुआ बशीर मियाँ था...और घर के ज़र्रे- ज़र्रे में वो रेंगती परछाइयाँ, जो वस्तुतः नादिरा कि आख़िरी साँस तक उसका पीछा करेंगी.
इस अनूठे नाटक का इतना सफल संचालन किसी पहुंची हुई चीज़ की उपज ही मानी जा सकती है, और उमा जी के साढ़े अनुभव पूरी किताब में अपनी निर्विवाद हुंकारी भरता है, और ख़ुद ही नादिरा बनकर उन्होंने जो जीवंतता उन्होंने नाटक में भरी है, वो इस मंच में उनकी ज़बरदस्त पैठ की मिसाल है.***
                                                © अमिय प्रसून मल्लिक

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नाटक- 'रेंगती परछाइयाँ'                                                          
कृत- उमा झुनझुनवाला
प्रकाशन समूह- ‘ऑथर्स प्रेस
मूल्य- रु. 25
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