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Sunday 16 November 2014

'इश्क़ तुम्हें हो जाएगा'--काव्य- संग्रह(अनुलता राज नायर)





आज ही Anulata Raj Nair जी की किताब 'इश्क़ तुम्हें हो जाएगा' कूरियर से मिली और उसे पूरा खंगालने के आनन- फानन में कुछ विचारों को मेरे अंदर के उत्साहित कवित्व ने जना.
इसे ‘हिन्द युग्म' की सफलता ही कहें कि पुस्तक छोटी हो या बड़ी, छपाई- सफाई का हमेशा ख़याल रखा जाता है.
प्रेम- सन्दर्भों से लबरेज यह पुस्तक कई छोटी, मगर अपने- आप में कसी हुई रचनाओं का समृद्ध संसार है.
पुस्तक की शुरुआत ही बहुत ही सधी हुई रचना 'रूह' से होती है कि,
''कभी ख़ाली न हुई
वो क़ब्र
कि रूह आज़ाद नहीं होती
'गर रक्खा हो कोई बोझ
उसके सीने पर...''

वहीँ कुछ कविताएँ आज की स्त्री दशा को फिर से सोचने को बाध्य भी करती है. एक बानगी 'पनीली आँखें; में है-
''...अपने हर स्वप्न को,
मरते देखतीं
अपनी ही आँखों से
उस मासूम- सी
लड़की की
वो सीली आँखें.''

काव्य एक लय में चलता हुआ 'राग- विराग' के अनछुए पहलुओं पर भी अपनी धमक जड़ता है, और अतिशय समर्थ शब्द- सामंजस्य से आँगन में खड़े वृक्ष को 'रूपक' के रूप में लाता है. यहाँ प्रेम के परिप्रेक्ष्य में ही इसका होकर फिर न होना बड़ी परिपक्वता से दर्शाया गया है, और वो भी, केंद्र में जीवंत होकर भी किंकर्तव्यविमूढ़ पेड़ को लेकर. यह कविता अतीव सार्थक इसलिए भी जान पड़ती है कि रिश्तों और उनमें चस्प एहसासों को इसके पाताल तक पहुँचने वाली जड़ों से जोड़कर रखा गया है.
इसी सन्दर्भ में, जब और भी कविताओं का आस्वादन होता है तो 'प्रेम का रसायन' अपनी बड़ी सटीक उपस्थिति दर्ज़ करती है. शायद इसलिए भी, क्यूँकि यह उनका विषय रहा हो :p जहाँ उन्होंने इश्क़ के नाकाम होने की वजह का बड़ी सुंदरता से शब्दांकन किया, और स्त्री लज्जा को जिस चम्पई रंग में उन्होंने लपेटा है, वहीँ मनुजों  के उच्छृंखल भाव की नंगी तस्वीर को भी सहजता से दिखाती हैं.

यद्यपि अग्रेज़ी के बोल लिए कुछ रचनाएं हिंदी में बहुत सार्थक बातें करती हैं, और अपने सीमित शब्दों से भाव जगाती भी हैं, तथापि शुरुआत से ही प्रेम की नय्या में सवारकर यकायक तारतम्य तोड़ देती हैं; ऐसा भरसक इसलिए भी क्यूंकि इनमें एहसासों से ज़्यादा बौद्धिक पहलुओं को तरजीह दी गयी है. यह पुस्तक की निराशाजनक चौहद्दी है, जहाँ आप और भी बेहतरी की उम्मीद में अब तक के सहेजे लय को खोने लगते हैं.
यहाँ अनुलता जी को ज़्यादा काम करना था. साथ ही, सम्पादकीय ताल-मेल भी रचनाओं के चयन में सूझ- बूझ का हिस्सा बनता.
पुस्तक की जो सबसे बड़ी और सकारात्मक बात है, वो ये कि पुस्तक छोटी और काफ़ी सधी हुई श्रेणी की है, और यही इसकी सफलता है. आज न तो किसी के पास इतना वक़्त है, और न कोई इतना समय मोटी किताबों को देना ही चाहता है. कम शब्दों में ज़्यादा सार्थक बातें, यही इसकी चुनौती ख़त्म करती है. पुस्तक का मूल्य भी उचित है, और ऑनलाइन शॉप से मंगाने पर भी कोई टेंशन नहीं, क्यूंकि किताब ही इतनी सुन्दर चीज़ है जहाँ आपको गारंटी या वारंटी की चिंता नहीं सताती.
अनुलता जी ने इस मर्म को समझकर ही भरसक रचनाओं के साथ ज़्यादातर न्याय किया है.

अंग्रेजी में एक कहन चलती है, last but not the least, उसी के तहत, उनकी सीख से मैं भी संक्षेप में अपनी राय ख़त्म करता हूँ. पुस्तक और उनसे जुडी शख्सियत को मेरी शुभकामनाएँ!

                                         --- अमिय प्रसून मल्लिक.


Refer:(  https://www.facebook.com/photo.php?fbid=568412533262650&set=pb.100002817262196.-2207520000.1416127248.&type=3&theater )

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